Monday 17 November 2008

चाचा नेहरू के पत्र

चाचा नेहरू एक ऐसे व्यक्तित्व रहे जिनकी आँखों में बच्चों के लिये बेहद प्रेम था तथा उनकी बाँहें बच्चों को गोद में लेने के लिए सदा आतुर रहती थी। बच्चों से उनका प्रेम असीम था। जानते हैं बच्चों! आज़ादी के लिए जब वे जेल गए, तब अपना अधिकतर समय उन्होने पत्र लेखन में बिताया। वैसे तो वे पत्र उन्होने अपनी बेटी इन्दु के नाम लिखे थे किन्तु हर बच्चा उनसे बहुत कुछ सीख सकता है। उनके कुछ उदाहरण आपके लिए प्रस्तुत कर रही हूँ-
प्यारे बच्चों !
तुम लोगों के बीच रहना मैं पसंद करता हूँ। तुमसे बातें करने में और तुम्हारे साथ खेलने में सचमुच मुझे बड़ा मज़ा आता है। थोड़ी देर के लिए मैं यह भूल जाता हूँ कि मैं बेहद बूढ़ा हो चला हूँ और मेरा बचपन मुझसे सैंकड़ो हज़ारों कोस दूर हो गया है ..... हमारा देश एक बहुत बड़ा देश है और हम सब को-मिलकर अपने देश के लिए बहुत कुछ करना है। हममें से हर कोई अगर अपने हिस्से का काम पूरा करता रहेगा तो इन सब कामों का ढेर लगता रहेगा और हमारा मुल्क तरक्की के रास्ते पर तेज़ी से आगे बढ़ेगा।
२ मैं आज तुम्हें पुराने जमाने की सभ्यता की सभ्यता का कुछ हाल बताना चाहता हुँ। लेकिन इससे पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि सभ्यता का क्या अर्थ है। अच्छा करना, सुधारना , जंगली आदतों की जगह अच्छी आदतें पैदा करना। यह सब जानने के लिए तुमको खुद सब कथाओं को पढ़ना चाहिए।
३ अगर तुम मेरे पास होते तो मैं तुमसे उस खूबसूरत दुनिया के बारे में बातें करना पसन्द करता। मैं तुमसे फूलों और पेड़ों , परिन्दों और जानचरों, सितारों और पहाड़ों हिम की नदियों और ऐसी दूसरी अनेक चीजों के बारे में बात करता जो हमारे इर्द-गिर्द हैं। उन्होने ऐसे ही अनेक पत्र और लेख लिखे जो आज भी हम सबके लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। उनमें कुछ अंश तो ऐसे हैं जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता । एक बार उन्होने कहा था- यदि कोई मुझे याद करर तो मैं चाहूँगा कि वह यह कहे कि इस आदमी ने पूरे दिल और दिमाग से हिन्दुस्तान से प्यार किया और बदले में उन्होने भी उसे उतना ही चाहा और बेहद मुहब्बत दी। आपका और मेरा काम आज और कल के भारत को बनाना है। लेकिन उसके बनाने के लिए हमें अपने प्राचीन इतिहास को कुछ समझना है और उसमें जो अच्छी बातें हैं , उनका लाभ उठाना है। उसमें जो बुरी बातें हैं उनसे बचना है। लोकतंत्र का मतलब मैं यह समझता हूँ कि समस्याएँ शान्ति पूर्वक सुलझाई जाएँ। अगर आदमी में दहशत भर जाए तो वह ना ठीक से सोच सकता है, ना काम कर सकता है। खतरा चाहे मौजूद हो या आने वाला हो डर से उसका सामना नहीं किया जा सकता।
शान्ति और सत्य का रास्ता ही मनुष्य का सच्चा रास्ता है।
उन्होने कहा- परिवर्तन जरूरी है, लेकिन उसके साथ परम्परा भी जरूरी है। भविष्य की इमारत वर्तमान और अतीत की बुनियाद पर ही खड़ी होती है। अगर अपने इतिहास को हम भुला देंगें और उसे छोड़ देंगें तो हमारी जड़ें कट जाएँगी और हमारा जीवन रस सूख जाएगा।
उन्होने बच्चों को कहा- बुराई के सामने कभी सिर न झुकाना चाहिए। लेकिन बुराई का सामना डर और गुस्से से और बुरी बातों से नहीं करना चाहिए। बुराई का सामना करते समय हमें दिमाग ठंडा रखना चाहिए।
वे गरीबी और अभाव को समाप्त करना चाहते थे। इसीलिए कहा- जब तक दुनिया के किसी भी हिस्से में गरीबी और अभाव रहेगा, दुनिया में खतरा भी बना रहेगा। धर्म का सम्बंन्ध नैतिक और सदाचार की बातों से है।
हिंसा का रास्ता वे खतरे का रास्ता बताते थे। वे काम को महत्व देते थे। इसीलिए इतने बड़े पद पर होने पर भी दिन में १८ से २० घंटे काम करते थे। वे कहते थे- मैं ऐसे आदमी चाहता हूँ जो काम को धर्म समझ कर करें। जो बुराई के सामने सिर ना झुकाएँ। सच्चाई से लड़ने के लिए तैयार रहें। उन्होने बच्चों को देश सेवा की प्रेरणा देते हुए कहा- भारत की सेवा से अभिप्राय करोड़ों लोगों की सेवा से है। इसका अर्थ है कि गरीबी, अग्यानता और असमानता समाप्त कर दी जाए। हर आँख से आँसू पोंछने का प्रयास किया जाए। परंतु जब तक लोगों की आँखों में आँसू हैं और वे पीड़ित हैं तब तक हमारा कार्य समाप्त नहीं होगा।
उन्होने कहा- भारत की जनता आजादी पा चुकी है, किन्तु इसके मीठे फल का स्वाद चखने के लिए उसे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी होंगीं।
बच्चों! नेहरू जी के विषय में जितना भी लिखूँ कम है। बस यह समझ लो कि उनको बच्चों से बहुत आशाएँ थीं और आपको उनके आदर्शों पर चलकर उनका सपना पूरा करना है। ईमानदार, देशभक्त और कर्मठ बनना होगा। भारत की तुम आशाएँ हो। नेहरू जी के समान जीवन में उच्च आदर्श और आत्म विश्वास लेकर आगे बढ़ना है, फिर कोई भी मुश्किल तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगी। जय भारत।

Wednesday 22 October 2008

आओ हम सब दीप जलाएँ


आओ हम सब दीप जलाएँ

दीपों की इक लड़ी

बनाएँघर के अँधियारे के संग-

संगमन का भी अन्धकार

हम सब दीप जलाएँ


प्रेम प्यार से घर-घर जाएँ

दुखियों को भी गले लगाएँ

उनको भी खुशियाँ दे आएँ

आँखों में सपने दे आएँ

आओ हम सब दीप जलाएँ


इस जग में है बहुत -अँधेरा

क्रोध-वैर ने सबको घेरा

करते हैं सब तेरा-मेरा

एक दीप उनको दे आएँ

तेरा-मेरा भाव भुलाएँ

आओ हम सब दीप जलाएँ


दीप उनको दे आएँ तेरा-मेरा भाव भुलाएँआओ हम सब दीप जलाएँ

Monday 22 September 2008

जीवन

जीवन
जीवन क्या है ?
आशाऒं- निराशाऒं का
क्रीड़ास्थल ।

एक आती है,
दूसरी जाती है ।
एक सपने जगाती है ।
कोमल भावनाऒं की
कलियाँ खिला जाती है ।

मन्द- मन्द बयार बन
उन्हें सहलाती है ।
मन मयूर खुशी से
नाचने लगता है ।

किन्तु तभी---
दूसरी लहर आती है ।
मौसम बदलता है ।
बयार की गति बढ़ जाती है ।

तूफान के झोंके आते हैं ।
हर कली को गिराते हैं ।
बहारों का मौसम
पतझड़ में बदल जाता है ।

सुख- दुःख का जीवन से
बस इतना ही नाता है ।

Saturday 13 September 2008

हिन्दी-दिवस

हिन्दी-दिवस की आप सभी को बधाई। १४ सितम्बर १९४९ को संविधान में हिन्दी को राष्ट्र भाषा स्वीकार किया गया था। एक लम्बा अन्तराल बीत गया है किन्तु आज तक हम हिन्दी को वह स्थान नहीं दिला पाए जिसकी वह अधिकारिणी है। हम उसका सम्मान करते हैं किन्तु उपयोग में अंग्रेजी ही लाते हैं। अपने बच्चों को अंग्रेजी बोलने के संस्कार देते हैं, अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाते हैं और गर्व से कहते हैं हिन्दी नहीं आती। क्या सुन्दर ढंग है हिन्दी के सम्मान करने का ।
वर्तमान में हम अपनी भाषा और अपनी संस्कृति दोनो से ही दूर होते जारहे हैं। एक विदेषी भाषा सीखना बुरा नहीं किन्तु अपनी पहचान खो बैठना बुरा है। अपनी भाषा से दूर होने के कारण हम अपनी संस्कृति से भी दूर हो रहे हैं। बल्कि यों कहें कि अपनी पहचान भी खो रहे हैं। हमारी दशा उस मूर्ख जैसी है जिसके पास पूर्वजों की बहुमूल्य विरासत है किन्तु वह उसका उपयोग नहीं कर पाता और भिखारी बना रहता है।
संसार के जितने भी राष्ट्र हैं सब अपनी भाषा को प्राथमिकता देते हैं और हम अपनी भाषा बोलने और सीखने में शर्म का अनुभव करते हैं। इसका भयानक परिणाम मैं नई पीढ़ी में देख रही हूँ। जो ना हिन्दी ठीक से पढ़ सकता है ना लिख सकता। और अंग्रेजी में पारंगत है। दोषी नई पीढ़ी नहीं दोषी हम लोग हैं। हमने उनको अपनी भाषा के संस्कार ही कहाँ दिए। हमने उसे अंग्रेजी बोलने के लिए ही प्रेरित किया। उसे कभी हिन्दी की विशेषताएँ नहीं बताई।
हमारी हिन्दी भाषा संसार की सर्वोत्तम भाषा है। इसकी वैग्यानिकता इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। जैसे बोली जाती है वैसे ही लिखी जाती है। तर्क संगत है। सुमधुर और सरल है। भूमावृति के कारण नित्य नवीन शब्दों को जन्म देने वाली है। एक-एक शब्द के कितने ही पर्याय वाची हैं। हर शब्द का सटीक प्रयोग होता है। अलग-अलग संदर्भों में एक ही शब्द नहीं , अलग-अलग शब्द हैं।
समन्वय की प्रवृति के कारण दूसरी भाषाओं के शब्दों को जल्दी ही अपने में समा लेती है। माँ के समान बड़े प्यार से सबको अपने आँचल में समा लेती है। यही कारण हैकि दूसरी भाषाओं के शब्द यहाँ आकर इसीके हो जाते हैं। फिर भी हम इसका लाभ नहीं उठा पा रहे। यह हमारा दुर्भाग्य ही तो है।
आज विश्व के अनेक देश हिन्दी के महत्व को समझ रहे हैं। इसके शिक्षण की व्यवस्था कर रहे हैं, गोष्ठियाँ कर रहे हैं और हम इसकी उपेक्षा कर रहे हैं।
हिन्दी-दिवस के अवसर पर मैं अपने देश वासियों को यही संदेश देना चाहूँगी कि यदि अपने स्वाभिमान और अपनी अस्मिता को बचा कर रखना है तो अपनी भाषा को महत्व देना सीखो। इसे ग्यान-विग्यान का वाहक बनाओ तथा इसमें संचित कोष का लाभ उठाओ। अपनी भाषा सीखो यही तुमको उन्नति दिलाएगी
यदि अपनी माँ भिखारिन रही तो पराई भी कुछ नहीं दे पाएगी।
जय भारत।

Saturday 30 August 2008

शिक्षक दिवस नज़दीक आरहा है

शिक्षक दिवस नज़दीक आरहा है, किन्तु शिक्षकों की दशा देख मन घबरा रहा है। वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित एवं आरोपित शिक्षक ही है। वह अनेक आलोचनाओं का शिकार हो रहा है। उसकी कर्तव्य निष्ठा पर अनेक सवाल उठाए जा रहे हैं। फिल्म जगत ने उसकी इस छवि को बिगाड़ने में विशिष्ट भूमिका निभाई है। ऐसे में इस व्यवसाय की ओर से यदि नई पीढ़ी उदासीन हो तो आश्चर्य ही क्या ?
समाज की इस दशा को देखकर मन में अनेक प्रश्न उठते हैं। सबसे अधिक विचारणीय विषय यह है कि कोई भी व्यक्ति इस व्यवसाय की ओर क्योंकर आकृष्ट हो? वेतन कम, तनाव अधिक , आलोचनाएँ पल-पल और सम्मान ? नदारद। एक फिल्म में उसे बच्चों का टिफिन खाता दिखाया जाता है और दूसरी में उसे बच्चों पर अनाचार-अत्याचार करता या बच्चों के साथ रोंमांस करता दिखाया जाता है। ऊपर से मीडिया ……मैं मानती हूँ कि बालकों को मारना,पीटना या प्रताड़ित करना उचित नहीं किन्तु सकारण कभी-कभी अध्यापक को कठोर होना पड‌ता है। प्यार से पढ़ाने की बात सही है किन्तु कभी एक बार अध्यापक के स्थान पर आकर देखो। जो समस्याएँ अध्यापक अनुभव करते हैं उन्हें बिना समझे उन्हे अदालत में घसीटना कितना उचित है?
वर्तमान समय मे स्वः अनुशासन जैसे शब्द कोई नहीं जानता। भय बिनु होय न प्रीति भी पूरी तरह ठुकराई नहीं जा सकती। अध्यापक बच्चों को सुधारने के लिए कभी उन्हे दंडित भी करता है। बच्चों की अनुशासन हीनता सीमा का अतिक्रमण कर चुकी है। विद्यार्थी कक्षा में बेशर्मी करे और अध्यापक मूक रहे- यही चाहते हैं सब ? क्या हो सकेगा राष्ट्र निर्माण ?
आज कक्षा में दस छात्र पढ़ना चाहते हैं और ३० नहीं। तब क्यों शिक्षा को आवश्यक बना कर उनपर लादा जा रहा है?
मैं बहुत बार ऐसे छात्रों को देखकर सोचती हूँ क्यों ना पढ़ने के लिए बाध्य किया जा रहा है? जबरदस्ती पढ़ाए जाने पर क्या वो शिक्षा का उचित लाभ उठा पाएँगें?
माता- पिता के पास समय नहीं है, अध्यापक को सुधार की आग्या नहीं है फिर कैसे होगा राष्ट्र निर्माण ? और सम्मान भी ना मिला तो कौन बनेगा अध्यापक ???

Monday 21 July 2008

यह भी हो सकता है......

नारी स्वाधीनता, नारी सशक्तीकरण आदि विषयों पर बहुत पढ़ा और लिखा भी। अपनी अस्मिता एवं अपने अधिकारों की बात से मस्तक गर्व से ऊँचा कर इस बार जब मैं घर गई तो माँ को देख आँखों में आँसू आगए। उनको एक लम्बा सा भाषण दिया, अपनी डीँगें हाँकी। माँ चुपचाप सुनती रही। फिर अचानक उन्होने मुझसे प्रश्न किया- क्या तुम पूरी तरह स्वतंत्र हो? क्या आधुनिक कहलाने वाली नारी के सारे निर्णय अपने होते हैं ? मैं सकपका गई, किन्तु मैंने हार बिना माने हुए कहा- ‘हाँ । मैं अपने जीवन के सारे निर्णय स्वयं लेती हूँ। तुम्हारी तरह गिड़गिड़ाती नहीं। जो बात पसन्द नहीं साफ़ मना कर देती हूँ’। माँ मुसकुराते हुए बोली- ‘तुम्हें किसने कहा कि मैं अपने जीवन के निर्णय अपनेआप नहीं लेती ? अरे! मैने भी सारा जीवन स्वाधीनता से बिताया है। अन्तर बस इतना ही है कि मैने कभी किसी को यह जताया नहीं’।मुझे यह बात समझ नहीं आई। मैने प्रश्न वाचक दृष्टि से माँ की ओर देखा। माँ ने हँसते हुए कहा- जब काम बिना लड़ाई के चल जाए तो लड़ना क्यों?मतलब?????? देखो! हम लोगों ने भी अपनी ज़िन्दगी अपने ढँग से जी है। बस पति की निन्दा नहीं की। हर पल उसे यह विश्वास दिलाया कि उसके बिना हमारा अस्तित्व ही नहीं है। हर दम उससे डरने का नाटक किया और घर पर राज किया। पर कैसे? मैने पूछा ।‘सुनो बिटिया! आदमी बहुत बड़ा अहंकारी जीव होता है। उसे बस विश्वास दिलाए रखो कि हम उनसे डरते हैं। वह संतुष्ट हो जाएगा’- माँ ने मुसकुराते हुए कहा। हम लोग भी सदा आज़ाद रहे किन्तु कभी बिना काम झगड़ा ना करो तो शान्ति बनी रहती है। उसको इतनी फुरसत ही कहाँ है कि वह घर पर नज़र डाले। बस उसके अहंकार को चुनौती मत दो, सदा उसके सामने डरी-डरी रहो-माँ ने मुसकुराते हुए कहा। मैं माँ की बात पर हँस पड़ी- माँ तुम्हारी पीढ़ी बहुत होशियार थी। बहतु चालाक भी। और क्या ? तुम आजकल की पढ़ी-लिखी औरतें बिना कारण झगड़ा करती हैं। सारा दिन नौकरी करेंगीं, घर और बाहर दोनो सँभालेंगी और अपने को होशियार समझकर घर पर झगड़ा करेंगी। फिर भी समझती हैं कि वो ज्यादा होशियार और सुखी हैं।माँ की बातों को सुनकर मैं कुछ सोचने पर मज़बूर हो गई। वास्तव में माँ ठीक ही तो कह रही थी। बहस और लड़ाई करके आज नारी रिश्तों को और भी दूभर ही तो बना रही है। स्त्री-पुरूष एक दूसरे के विरोधी नहीं ,पूरक हैं फिर इतना विवाद क्यों?

Monday 14 July 2008

अबला नहीं सबला बन

अबला नहीं सबला बन

कल ही मैं जून माह की कादम्बिनी पढ़ रही थी। उसमें तसलीमा जी का एक लेख बहुत प्रभावी लगा। सारंश कुछ इस प्रकार था- " दूरदर्शन के एल कार्यक्रम में महिलाओं से पूछा जा रहा था कि वे किस प्रकार के पुरूषों को ज्यादा पसन्द करती हैं। यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि अधिकतर तारिकाएँ आक्रामक पुरूष को पसन्द करती हैं। आक्रामक माने माचो मैन। कितने आश्चर्य की बात है कि पुरूष द्वारा पीड़ित,शोषित नारी पुनः आक्रामक पुरूष चाहती है "
तसलीमा जी की बात से मैं भी सहमत हूँ। पुरूष तो सदा से आक्रामक ही रहा है। फिर ऐसी कामना क्यों ?
मुझे ऐसा लगता है कि अधिकतर स्त्रियाँ स्वभाव से ही कमजोर होती हैं। इन्हें बचपन से ही कमजोर बनाया जाता है। हमेशा पिता या भाई की सुरक्षा में रहने के कारण असुरक्षा की भावना उसके दिल में बैठ गई है। एसी भावना से प्रेरित होकर वह कभी भाई की दीर्घ आयु की कामना के लिए व्रत उपवास रखती आई है तो कभी पति की लम्बी उम्र के लिए । क्या कभी किसी भाई या पति ने इनके मंगल की कामना हेतु कोई उपवास किया है ?
प्रेम और समर्पण नारी का स्वभाव है। किन्तु अपनी कमजोरी के प्रति स्वीकार्य की भावना निन्दनीय है। उसकी सोच ही उसे कमजोर बनाती है। इतिहास साक्षी है कि जब भी नारी ने अपने को कमजोर समझा उसपर अत्याचार हुआ और जब भी उसने अपने आत्मबल को जगाया, अन्यायी काँप गया। स्त्री को यदि स्वाभिमान से जीना है तो सबसे पहले अपने भीतर के डर को भगाना होगा, अपनी शक्ति को पहचानना होगा । उसके भीतर छिपा भय ही उसके शोषण का कारण है।
अतः वर्तमान में आवश्यकता है कि हर नारी पर जीवी बनना छोड़ दे। परिवार में प्यार और मधुर सम्बन्ध अवश्य होने चाहिए किन्तु कमजोरी से ऊपर उठें और अपने बच्चों को भी सशक्त बनाएँ। आत्मविश्वास को अफनी पहचान बनाएँ क्योंकि -
जब भी मैने सहायता के लिए किसी को पुकारा, स्वयं को और भी कमजोर बनाया
जब भी आत्म विश्वास को साथी बनाया, रक्त में शक्ति का संचार सा पाया।
अतः मै यही कहूँगी कि- सशक्त बनें और निर्भीक रहें। इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम नहीं कर सकती।
यही युग की पुकार है और यही जीत का मूल मंत्र।

Saturday 5 July 2008

स्वाभिमानी इला

प्रिय पाठकों
आज मैं आप सबको एक सशक्त और आत्मविश्वास से पूर्ण नारी के बारे में बताऊँगी। इस बहादुर नारी का नाम था इला। इला का विवाह एक बहुत ही घमंडी तथा क्रूर इन्सान से हुआ था। विवाह के कुछ ही दिनों बाद इला को पति द्वारा बिना कारण प्रताड़ना मिलने लगी। उसका कसूर केवल इतना ही था कि वह एक सीधी-सादी भारतीय नारी थी।वह अधिक पढ़ी-लिखी भी नहीं थी इसीलिए बहुत दिनों तक पति के अत्याचार सहती रही। उसके माता-पिता की आर्थिक स्थिति भी खराब ही थी। वह अपनी दशा से उनको और दुखी नहीं करना चाहती थी।
किन्तु एकदिन उसके स्वाभिमान पर गहरी चोट लगी और उसने विरोध कर दिया। परिणाम स्वरूप उसे धक्के मार-मार कर बाहर निकाल दिया गया। पति के घर से पिता के घर भी वह नहीं जा सकती थी। वह रातभर घर के बाहर बैठकर रोती रही। उसके रोने की आवाज़ सुनकर पास ही रहने वाली एक सहृदय महिला ने उसको अपने स्कूल में नौकरी दिलवा दी। उनका सहारा पाकर उसे बड़ा बल मिला।
चुपचाप वह काम करती रही और अपनी पढ़ाई भी करती रही। अपनी मेहनत से उसने एम ए की परीक्षा उत्तीर्ण की।
प्रधानाचार्या ने जब उसका परीक्षा परिणाम देखा तो उसे एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी दिला दी। अब तो इला का उत्साह और बढ़ गया। वह पढ़ाने के साथ-साथ बालिकाओं में आत्मविश्वास भी जगाने लगी।
उसके अच्छे स्वभाव से आस-पास के लोग भी खुश थे। वह सभी के लिए आदर्श बन गई। उसने औरों को भी यही शिक्षा दी कि अन्याय के सामने कभी भी मत झुको। जीवन के अन्तिम दिनों में भी इला मुस्कुराती रही। अपना दर्द कभी भी किसी को नहीं दिया ,बस प्यार ही बाँटा।
आज इला नहीं है किन्तु उसका दिया हुआ विश्वास उसकी प्रत्येक छात्रा में है। काश दुनिया की हर महिला में ऐसा स्वाभिमान आजाए जिससे कोई उसपर अत्याचार करने की बात सोच भी ना सके। इला की कथा हम सब के लिए प्रेरणा है। ऐसी ही नारियों को देख प्रसाद जी ने लिखा था-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग- पग- तल में
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।

Wednesday 21 May 2008

एक और बलात्कार


एक और बलात्कार

इस बार महिला नहीं

एक बालिका तार-तार

बलात्कार तथा व्यभिचार की घटनाओं में प्रतिदिन इज़ाफा हो रहा है और हमारा प्रशासन मुँह ढ़ाँपकर सो रहा है। शर्म तो तब आती है,जब पुलिस कर्मी स्वयं इस घटना को अंजाम देते हैं। कौन सुनेगा पुकार जब रक्षक ही भक्षक बन जायेगा ?

इन सब घटनाओं से जहाँ एक ओर भय और आतंक का वातावरण फैलता है, वहीं बालिकाओं के हृदय में आत्म सुरक्षा के अनेक सवाल उठने लगते हैं। ऐसे में सबसे अच्छा तो यह है कि प्रत्येक माता-पिता अपनी बालिका को इसके विरूद्ध तैयार करें। मासूम बच्चियों की सुरक्षा अधिक सजगता से करें। उन्हें प्राथमिक स्तर पर ही सुरक्षा की सब जानकारी दें। उनमें आत्मविश्वास जगाएँ तथा जहाँ कोई भी कुत्सित दृष्टि से देखता या दुराचार करता पाया जाए उसे सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया जाए।

कानून से बचने पर भी समाज से बहिष्कृत होना शर्मनाक होता है। यदि उसकी माँ, बहन या बेटी ही उसका विरोध करेगी तो अपराधी शर्मसार होगा। शायद अपराध कुछ कम हों। दोषी कोई भी हो- छोटा या बड़ा, अपना या पराया-सब लोग खुलकर उसका विरोध करें। पाप को संरक्षण देना पाप को बढ़ावा देना ही होता है।

अपने पुरूष मित्रों से अनुरोध है कि अपने आस-पास इस प्रवृत्ति को रखने वाले का प्रतिकार करें। समाज में बढ़ते अपराध को रोकना सभी की जिम्मेदारी है। अपराधी को भागने या छिपने का मौका ना दें।

यदि सब लोग सहयोग करेंगें तो समाज का विकास होगा और नारी में भय के स्थान पर आत्मविश्वास आएगा।

गूँजे जग में गुंजार यही-

गाने वाला नर अगला हो

नारी तुम केवल सबला हो ।

नारी तुम केवल सबला हो

Wednesday 14 May 2008

महिला आरक्षण


संसद में महिला आरक्षण का प्रश्न आज प्रत्येक व्यक्ति की चर्चा का विषय है। इसकी आवश्यकता इतनी बढ़ी है कि अन्तर्जाल पर भी चर्चा की जा रही है। चर्चा होना तो अच्छी बात है किन्तु उसका सार्थक ना होना उतना ही दुःख दाई है।

हमारे कुछ पुरूष मित्रों ने इसे नारी जाति पर प्रहार करने का तथा उनपर हँसने का मुद्धा बनाया है। मैं नहीं जानती कि यह कैसी मानसिकता है । महिलाओं के लिए हल्के शब्दों का प्रयोग करके अथवा अश्लील शब्दों की टिप्पणी देकर वे क्या साबित करना चाहते हैं ।

सत्य तो यह है कि महिला आरक्षण की चर्चा केवल दिखावटी है। कोई भी दल नहीं चाहता कि जिनका वे सदा से शोषण करते आए हैं, पैरों की जूती समझते आए हैं वे उनके साथ आकर खड़ी हो जाए। इसी कारण २० साल से यह विषय मात्र चर्चा में ही है। ना कोई इसका विरोध करता है और ना खुलकर समर्थन। उसको लाने का सार्थक कदम तो बहुत दूर की बात है। उनको लगता है कि नारी यदि सत्ता में आगई तो उनकी निरंकुशता कुछ कम हो जाएगी, उनकी कर्कशता एवं कठोरता पर अंकुश लग जाएगा तथा महिलाओं पर अत्याचार रोकने पड़ेंगें ।

अपने साथी मित्रों को मैं यह बताना चाहती हूँ कि यह पुरूष विरोधी अभियान कदापि नहीं है । इसलिए उटपटाँग शब्दावली का प्रयोग कर अपनी विकृत मानसिकता का परिचय ना दें। पुरूष और स्त्री अगर साथ चलेंगें तो समाज में सुन्दरता ही आएगी कुरुपता नहीं।

मुझे लगता है ३३ ही नही ५० स्थान महिलाओं को मिलने चाहिएँ। आज महिला बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक, आत्मिक किसी भी क्षेत्र में कम नहीं फिर उसे आगे आने के अवसर क्यों ना दिए जाएँ? आपत्ति क्यों है ?

निश्चित रहिए -'नारी नर की शक्ति है उसकी शत्रु नहीं । आपस में दोषारोपण से सम्बन्धों में तनाव ही आएगा।

आज समय की माँग है कि नारी को उन्नत्ति के समान अवसर मिलें और खुशी-खुशी उसे उसके अधिकार दे दिए जाएँ।

Friday 2 May 2008

कब टूटेगा अहं….?


अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। इसी के वशीभूत होकर संसार में बड़े-बड़े पाप और दुष्कृत्य किए जाते हैं। पुरूषों में यह अहं और भी विकृत रूप में सामने आता है। सृष्टि के आरम्भ से ही नारी उसके इस अहं का शिकार होती

रही है।

रावण के अहंकार का शिकार हुई सीता, दुर्योधन के अहं का द्रोपदी । वर्तमान में भी यह अहं अनवरत रूप से नारी को शिकार बना रहा है। कुछ दिन पहले ही समाचार पत्र में इस अहंकार का विकृत रूप सामने आया। पति के साथ सहयोग करने वाली एक भावुक नारी का। पति अपनी बुरी हरकतों से कानून की गिरफ्त में आया तो वह पीड़ा से कराह उठी। पति का सुख-दुख में साथ निभाने का वचन याद आया। 'मैं तुम्हें कानून के शिकंजे से बचाउँगी' का उद्घोष कर उसने अपनी पढाई प्रारम्भ की। अपनी तीव्र इच्छा शक्ति के बल पर एक सफल वकील बनी और सावित्री के समान पति को मुक्त कराया।

किन्तु नारी की विडम्बना पत्नी के उपकार को मानने के स्थान पर पति उसकी ख्याति से जल उठा। भला जिस नारी उसने सदा कदमों पर झुका देखा था उसका अहंकार से दप्त मस्तक वो कैसे देखता। उसके अहंकार ने उसे पशु बना दिया और अपनी ही हितैषी, सुख-दुख की साथी संगिनी को क्रूरता से मार डाला।

यह घटना नारी की अस्मिता पर एक घिनौना दाग छोड़ती है। किस पर विश्वास करे वह ? क्या अपराध था उसका ?

आधुनिकता का दम्भ भरने वाले समाज में आज भी नारी इस अत्याचार की शिकार है। क्या इससे नारी की अपने संस्कारों के प्रति आस्था कम नहीं होती ? बरबस ही दिल में एक टीस सी उठी-

फिर उठी है टीस कोई

चिर व्यथित मेरे हृदय में

उठ रहे हैं प्रश्न कितने

शून्य पर- नीले- निलय में

Thursday 1 May 2008

कुछ दिल की सुनो

संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित

पर झाँक कर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।

मस्तिष्क की राह पर चलकर मनुष्य ने वैग्यानिक उपलब्धियाँ तो प्राप्त की हैं किन्तु हृदय की उपेक्षा करने के कारण वह अपने ही दुःखों का कारण बन गया है। सुख और शान्ति से कोसों दूर आगया है। अतः आवश्यकता है हृदय की राह को अपनाने की। कारण- हृदय की बात सुनकर कार्य करने पर हम स्वयं भी सुखी होते हैं और दूसरों को भी सुख बाँटते हैं। मस्तिष्क हमें क्रूर, हिंसक और अमानवीय बनाता है और हृदय हमारे देवत्व को जागृत करता है। मस्तिष्क ने हमें भयानक विनाश की राह सुझाई है। अतीत में हुए भयानक युद्धों से लेकर वर्तमान के भयावह युद्ध मस्तिष्क की प्रधानता के ही परिणाम हैं किन्तु हृदय ने सदा चन्दन लेप लगाया है, परायों को भी अपनाया है।

अतः हृदय की पुकार सुनने की महती आवश्यकता है।