Monday 21 July 2008

यह भी हो सकता है......

नारी स्वाधीनता, नारी सशक्तीकरण आदि विषयों पर बहुत पढ़ा और लिखा भी। अपनी अस्मिता एवं अपने अधिकारों की बात से मस्तक गर्व से ऊँचा कर इस बार जब मैं घर गई तो माँ को देख आँखों में आँसू आगए। उनको एक लम्बा सा भाषण दिया, अपनी डीँगें हाँकी। माँ चुपचाप सुनती रही। फिर अचानक उन्होने मुझसे प्रश्न किया- क्या तुम पूरी तरह स्वतंत्र हो? क्या आधुनिक कहलाने वाली नारी के सारे निर्णय अपने होते हैं ? मैं सकपका गई, किन्तु मैंने हार बिना माने हुए कहा- ‘हाँ । मैं अपने जीवन के सारे निर्णय स्वयं लेती हूँ। तुम्हारी तरह गिड़गिड़ाती नहीं। जो बात पसन्द नहीं साफ़ मना कर देती हूँ’। माँ मुसकुराते हुए बोली- ‘तुम्हें किसने कहा कि मैं अपने जीवन के निर्णय अपनेआप नहीं लेती ? अरे! मैने भी सारा जीवन स्वाधीनता से बिताया है। अन्तर बस इतना ही है कि मैने कभी किसी को यह जताया नहीं’।मुझे यह बात समझ नहीं आई। मैने प्रश्न वाचक दृष्टि से माँ की ओर देखा। माँ ने हँसते हुए कहा- जब काम बिना लड़ाई के चल जाए तो लड़ना क्यों?मतलब?????? देखो! हम लोगों ने भी अपनी ज़िन्दगी अपने ढँग से जी है। बस पति की निन्दा नहीं की। हर पल उसे यह विश्वास दिलाया कि उसके बिना हमारा अस्तित्व ही नहीं है। हर दम उससे डरने का नाटक किया और घर पर राज किया। पर कैसे? मैने पूछा ।‘सुनो बिटिया! आदमी बहुत बड़ा अहंकारी जीव होता है। उसे बस विश्वास दिलाए रखो कि हम उनसे डरते हैं। वह संतुष्ट हो जाएगा’- माँ ने मुसकुराते हुए कहा। हम लोग भी सदा आज़ाद रहे किन्तु कभी बिना काम झगड़ा ना करो तो शान्ति बनी रहती है। उसको इतनी फुरसत ही कहाँ है कि वह घर पर नज़र डाले। बस उसके अहंकार को चुनौती मत दो, सदा उसके सामने डरी-डरी रहो-माँ ने मुसकुराते हुए कहा। मैं माँ की बात पर हँस पड़ी- माँ तुम्हारी पीढ़ी बहुत होशियार थी। बहतु चालाक भी। और क्या ? तुम आजकल की पढ़ी-लिखी औरतें बिना कारण झगड़ा करती हैं। सारा दिन नौकरी करेंगीं, घर और बाहर दोनो सँभालेंगी और अपने को होशियार समझकर घर पर झगड़ा करेंगी। फिर भी समझती हैं कि वो ज्यादा होशियार और सुखी हैं।माँ की बातों को सुनकर मैं कुछ सोचने पर मज़बूर हो गई। वास्तव में माँ ठीक ही तो कह रही थी। बहस और लड़ाई करके आज नारी रिश्तों को और भी दूभर ही तो बना रही है। स्त्री-पुरूष एक दूसरे के विरोधी नहीं ,पूरक हैं फिर इतना विवाद क्यों?

Monday 14 July 2008

अबला नहीं सबला बन

अबला नहीं सबला बन

कल ही मैं जून माह की कादम्बिनी पढ़ रही थी। उसमें तसलीमा जी का एक लेख बहुत प्रभावी लगा। सारंश कुछ इस प्रकार था- " दूरदर्शन के एल कार्यक्रम में महिलाओं से पूछा जा रहा था कि वे किस प्रकार के पुरूषों को ज्यादा पसन्द करती हैं। यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि अधिकतर तारिकाएँ आक्रामक पुरूष को पसन्द करती हैं। आक्रामक माने माचो मैन। कितने आश्चर्य की बात है कि पुरूष द्वारा पीड़ित,शोषित नारी पुनः आक्रामक पुरूष चाहती है "
तसलीमा जी की बात से मैं भी सहमत हूँ। पुरूष तो सदा से आक्रामक ही रहा है। फिर ऐसी कामना क्यों ?
मुझे ऐसा लगता है कि अधिकतर स्त्रियाँ स्वभाव से ही कमजोर होती हैं। इन्हें बचपन से ही कमजोर बनाया जाता है। हमेशा पिता या भाई की सुरक्षा में रहने के कारण असुरक्षा की भावना उसके दिल में बैठ गई है। एसी भावना से प्रेरित होकर वह कभी भाई की दीर्घ आयु की कामना के लिए व्रत उपवास रखती आई है तो कभी पति की लम्बी उम्र के लिए । क्या कभी किसी भाई या पति ने इनके मंगल की कामना हेतु कोई उपवास किया है ?
प्रेम और समर्पण नारी का स्वभाव है। किन्तु अपनी कमजोरी के प्रति स्वीकार्य की भावना निन्दनीय है। उसकी सोच ही उसे कमजोर बनाती है। इतिहास साक्षी है कि जब भी नारी ने अपने को कमजोर समझा उसपर अत्याचार हुआ और जब भी उसने अपने आत्मबल को जगाया, अन्यायी काँप गया। स्त्री को यदि स्वाभिमान से जीना है तो सबसे पहले अपने भीतर के डर को भगाना होगा, अपनी शक्ति को पहचानना होगा । उसके भीतर छिपा भय ही उसके शोषण का कारण है।
अतः वर्तमान में आवश्यकता है कि हर नारी पर जीवी बनना छोड़ दे। परिवार में प्यार और मधुर सम्बन्ध अवश्य होने चाहिए किन्तु कमजोरी से ऊपर उठें और अपने बच्चों को भी सशक्त बनाएँ। आत्मविश्वास को अफनी पहचान बनाएँ क्योंकि -
जब भी मैने सहायता के लिए किसी को पुकारा, स्वयं को और भी कमजोर बनाया
जब भी आत्म विश्वास को साथी बनाया, रक्त में शक्ति का संचार सा पाया।
अतः मै यही कहूँगी कि- सशक्त बनें और निर्भीक रहें। इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम नहीं कर सकती।
यही युग की पुकार है और यही जीत का मूल मंत्र।

Saturday 5 July 2008

स्वाभिमानी इला

प्रिय पाठकों
आज मैं आप सबको एक सशक्त और आत्मविश्वास से पूर्ण नारी के बारे में बताऊँगी। इस बहादुर नारी का नाम था इला। इला का विवाह एक बहुत ही घमंडी तथा क्रूर इन्सान से हुआ था। विवाह के कुछ ही दिनों बाद इला को पति द्वारा बिना कारण प्रताड़ना मिलने लगी। उसका कसूर केवल इतना ही था कि वह एक सीधी-सादी भारतीय नारी थी।वह अधिक पढ़ी-लिखी भी नहीं थी इसीलिए बहुत दिनों तक पति के अत्याचार सहती रही। उसके माता-पिता की आर्थिक स्थिति भी खराब ही थी। वह अपनी दशा से उनको और दुखी नहीं करना चाहती थी।
किन्तु एकदिन उसके स्वाभिमान पर गहरी चोट लगी और उसने विरोध कर दिया। परिणाम स्वरूप उसे धक्के मार-मार कर बाहर निकाल दिया गया। पति के घर से पिता के घर भी वह नहीं जा सकती थी। वह रातभर घर के बाहर बैठकर रोती रही। उसके रोने की आवाज़ सुनकर पास ही रहने वाली एक सहृदय महिला ने उसको अपने स्कूल में नौकरी दिलवा दी। उनका सहारा पाकर उसे बड़ा बल मिला।
चुपचाप वह काम करती रही और अपनी पढ़ाई भी करती रही। अपनी मेहनत से उसने एम ए की परीक्षा उत्तीर्ण की।
प्रधानाचार्या ने जब उसका परीक्षा परिणाम देखा तो उसे एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी दिला दी। अब तो इला का उत्साह और बढ़ गया। वह पढ़ाने के साथ-साथ बालिकाओं में आत्मविश्वास भी जगाने लगी।
उसके अच्छे स्वभाव से आस-पास के लोग भी खुश थे। वह सभी के लिए आदर्श बन गई। उसने औरों को भी यही शिक्षा दी कि अन्याय के सामने कभी भी मत झुको। जीवन के अन्तिम दिनों में भी इला मुस्कुराती रही। अपना दर्द कभी भी किसी को नहीं दिया ,बस प्यार ही बाँटा।
आज इला नहीं है किन्तु उसका दिया हुआ विश्वास उसकी प्रत्येक छात्रा में है। काश दुनिया की हर महिला में ऐसा स्वाभिमान आजाए जिससे कोई उसपर अत्याचार करने की बात सोच भी ना सके। इला की कथा हम सब के लिए प्रेरणा है। ऐसी ही नारियों को देख प्रसाद जी ने लिखा था-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग- पग- तल में
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।