Saturday 26 September 2009

कलम आज उनकी जय बोल

प्रिय पाठको! २३ सितम्बर का दिन भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। आज ही के दिन राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी का जन्म हुआ था। दिनकर जी एक ऐसे कवि थे जिन्होने अपनी कविता से मानसिक क्रान्ति पैदा की। जीवन की कला के इस सच्चे कलाकार ने देश की रक्षा के लिए ही नहीं, परिवार की रक्षा के लिए भी संघर्ष किया। दिन-रात रोटी कमाई तथा अवसाद के क्षणों में काव्य लिखा। इनकी प्रशंसा करते हुए भगवती चरण वर्मा जी ने कहा था- दिनकर हमारे युग के एकमात्र नहीं तो सबसे अधिक प्रतिनिधि कवि थे। किन्तु दुख की बात तो यह थी कि जीवन का सर्वोत्तम काल रोटी-रोज़ी कमाने में बीत गया।
दिनकर जी का मानना था कि कविता केवल कविता है। मानवीय वेतना के तल में जो घटनाएँ घटती हैं, जो हलचल मचती है, उसे शब्दों में अभिव्यक्ति देकर हम संतोष पाते हैं। यदि देश और समाज को इससे शक्ति प्राप्त होती है तो यह अतिरिक्त लाभ है। दिनकर जी साहित्य में रवीन्द्र नाथ , इकबाल तथा इलियट से प्रभावित थे।
प्रभावशाली तेजस्वी व्यक्तित्व होने के साथ-साथ आवेश में भी जल्दी आते थे। ताँडव कविता में उनका यही रूप मिलता है। १९३५ में उन्होने कवि-सम्मेलन आयोजित किया तथा अंग्रेजों के विरूद्ध कविता पढी। अंग्रेजों के कान खड़े होगए। इसी समय रेणुका निकली जिसका स्वागत करते हुए सम्पादकीय में लिखा गया- रेणुका के प्रकाशन पर हिन्दी वालों को उत्सव मनाना चाहिए। अंग्रेज पुनः सजग हो गए। उसका अनुवाद करवाया गया तथा हुँकार प्रकाशित होने पर उन्हें चेतावनी भी दी गई। विशेष बार यह थी कि विद्रोह का बीज बोने वाला कवि अंग्रेज सरकार की नौकरी भी कर रहा था और कविता के माध्यम से क्रान्ति का मंत्र भी फूँक रहा था। उन्हें दंड मिला- ४ साल में २२ तबादले हुए किन्तु दिनकर जी की कलम ना रूकी। सामधेनी में उन्होने गर्व से कहा-
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे
अपने अनल -विशिख से आकाश जगमगा दे।
उन्माद बेकसी का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।
उनकी कविता देशभक्ति के दीप जलाती रही । स्वाधीनता के लिए संघर्ष तीव्र होते रहे और कवि की लेखनी उनका उत्साह बढ़ाती रही-
यह प्रदीप जो दीख रहा है, झिलमिल दूर नहीं है।
थक कर बैठ गए क्या भाई, मंज़िल दूर नहीं है।
१९३९ -४५ तक राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत लिखते रहे। सरकारी नौकरी की विवशता और गुलामी झेलते हुए भी राष्ट्रीयता का निर्भीक उद्घोष किया। कुरूक्षेत्र, रेणुका, नील कुसुम और उर्वशी उनके ४ स्तम्भ बन गए।

प्रभावशाली कवि को आवेश में आते देर ना लगती थी। १०४९ में जब वे वैद्यनाथ धाम गए तो उन्होने वहाँ ग्रामीण महिलाओं को जल चढ़ाने की प्रतीक्षा में काँपते देखा। पंडा किसी यजमान से पूजा करवा रहा था। फौरन दिनकर जी आवेश में आगए और बोले- हे महादेव लोग मुझे क्रान्तिकारी कवि कहते हैंऔर आप पंडे के गुलाम हो गए? इसलिए अगर मैं जल चढ़ाऊँ तो मेरे प्रशंसकों का अपमान होगा। इतना कहकर सुराही शंकर के माथे पर दे मारी।
पूँजीवाद के विरूद्ध उनके मन में आक्रोष था। विनय उनका स्वाभाविक गुण था। राष्टपति ने जब उनको अलंकृत पद्मभूषण से किया तब उन्होने अपनी प्रशंसा सुनकर मैथिली शरण गुप्त से कहा- आप सब के चरणों की धूल भी मिल जाए तो उसे अपने माथे पर लगा कर अभिमान नष्ट कर लूँ।
क्रोध और भावुकता के वे मिश्रण थे। एकबार अफसरी शान में एक गरीब आदमी पर छड़ी चला दी। लेकिन रात भर रोते रहे और सुबह उसे बुलाकर क्षमा माँगी और उसे रूपए दिए। जब तक वहाँ रहे उसकी मदद करते रहे। एक बार मद्रास में हिन्दी प्रचार सभा में उनका भाषण हो रहा था। एक छात्रने उनसे पूछा- क्या जीवन में भी आप उतने ही क्रोधी हैं जितने काव्य में दिखाई देते हैं ? दिनकर जी ने कहा- हाँ। किन्तु क्रोध के बाद मुझे रोना आता है।
गोष्ठियों में प्रथम कोटि के नागरिक का व्यवहार करते। प्रतिवर्ष फिल्मों की राष्टीय पुरस्कार समीति के सदस्य रहते। संगीत, नाटक, साहित्य अकादमी और आकाशवाणी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति के कर्मठ सदस्य रहे। लेकिन देहाती संस्कार उनमें प्रबल थे। निपट किसानों के समान खेनी भी खाते थे। स्वभाव से ईमानदार थे किन्तु नकली विनम्रता से उन्हें चिढ़ थी।
राष्ट-कवि के रूप में प्रसिद्धि रेणुका के साथ ही प्राप्त हो गई थी , हुँकार से और व्यापक हुई। कलाकार कहलाने के लिए मात्र कल्पना में भटकना उन्हें बिल्कुल भी प्रिय ना था। हुँकार के बाद रसवन्ती आई। कुरूक्षेत्र का प्रकाशन बाद में हुआ। वे आरम्भ से ही सोचते थे- हिंसा का प्रतिकार हिंसा से ही लेना पड‌ता है-
क्षमा शोभती उसी भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दन्त हीन, विषरहित,विनीत,सरल हो।
वे देश में साधु-संतो की अपेक्षा वीरों की आवश्यकता पर बल देते थे-
रे! रोक युधिष्टिर को ना यहाँ, जाने दे उसको स्वर्ग धीर।
पर फिरा हमें गाँडीव गदा, लौटा दे अर्जुन -भीम वीर।
जिस भ्रष्टाचार से देश आज परेशान है उसका संकेत दिनकर जी ने बहुत पहले ही दे दिया था। उन्होने लिखा था- टोपी कहती मैं थैली बन सकती हूँ,
कुरता कहता मुझे बोरिया ही कर लो।
२५ अप्रैल १९७४ को यह महान आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई। साहित्याकाश में दिनकर जी सदा-सर्वदा विराजमान रहेंगें और हर युग में उनकी कविता राष्टीय भावनाओं का संचार करती रहेगी। उस महान साहित्यकार को मेरा शत-शत प्रणाम।

Tuesday 15 September 2009

हिन्दी दिवस

हम सब

हिन्दी दिवस तो मना रहे हैं

जरा सोचें

किस बात पर इतरा रहें हैं ?

हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा तो है

हिन्दी सरल-सरस भी है

वैग्यानिक और

तर्क संगत भी है ।

फिर भी--

अपने ही देश में

अपने ही लोगों के द्वारा

उपेक्षित और त्यक्त है ------

---------------जरा सोचकर देखिए

हम में से कितने लोग

हिन्दी को अपनी मानते हैं ?

कितने लोग सही हिन्दी जानते हैं ?

अधिकतर तो--

विदेशी भाषा का ही

लोहा मानते है ।

अपनी भाषा को

उन्नतिका मूल मानते हैं ?

कितने लोग

हिन्दी कोपहचानते हैं ?-----------------

--------भाषा तो कोई भी बुरी नहीं

किन्तु हम

अपनी भाषा से

परहेज़ क्यों मानते हैं ?

अपने ही देश में

अपनी भाषा की

इतनीउपेक्षा

क्यों हो रही है

हमारी अस्मिता

कहाँ सो रही है ?

व्यवसायिकता और लालच की

हद हो रही है ।-----------------

--इस देश में

कोई फ्रैन्च सीखता है

कोई जापानी

किन्तु हिन्दी भाषा

बिल्कुल अनजानी

विदेशी भाषाएँ

सम्मान पा रही हैं

औरअपनी भाषा

ठुकराई जारही है ।

मेरे भारत के सपूतों


ज़रा तो चेतो ।

अपनी भाषा की ओर से

यूँ आँखें ना मीचो ।

अँग्रेजी तुम्हारे ज़रूर काम आएगी ।

किन्तु

अपनी भाषा तो

ममता लुटाएगी ।

इसमें अक्षय कोष है

प्यार से उठाओ

इसकी ग्यान राशि से

जीवन महकाओ ।

आज यदि कुछ भावना है

तो राष्ट्र भाषा को अपनाओ ।