शिक्षक दिवस नज़दीक आरहा है, किन्तु शिक्षकों की दशा देख मन घबरा रहा है। वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित एवं आरोपित शिक्षक ही है। वह अनेक आलोचनाओं का शिकार हो रहा है। उसकी कर्तव्य निष्ठा पर अनेक सवाल उठाए जा रहे हैं। फिल्म जगत ने उसकी इस छवि को बिगाड़ने में विशिष्ट भूमिका निभाई है। ऐसे में इस व्यवसाय की ओर से यदि नई पीढ़ी उदासीन हो तो आश्चर्य ही क्या ?
समाज की इस दशा को देखकर मन में अनेक प्रश्न उठते हैं। सबसे अधिक विचारणीय विषय यह है कि कोई भी व्यक्ति इस व्यवसाय की ओर क्योंकर आकृष्ट हो? वेतन कम, तनाव अधिक , आलोचनाएँ पल-पल और सम्मान ? नदारद। एक फिल्म में उसे बच्चों का टिफिन खाता दिखाया जाता है और दूसरी में उसे बच्चों पर अनाचार-अत्याचार करता या बच्चों के साथ रोंमांस करता दिखाया जाता है। ऊपर से मीडिया ……मैं मानती हूँ कि बालकों को मारना,पीटना या प्रताड़ित करना उचित नहीं किन्तु सकारण कभी-कभी अध्यापक को कठोर होना पडता है। प्यार से पढ़ाने की बात सही है किन्तु कभी एक बार अध्यापक के स्थान पर आकर देखो। जो समस्याएँ अध्यापक अनुभव करते हैं उन्हें बिना समझे उन्हे अदालत में घसीटना कितना उचित है?
वर्तमान समय मे स्वः अनुशासन जैसे शब्द कोई नहीं जानता। भय बिनु होय न प्रीति भी पूरी तरह ठुकराई नहीं जा सकती। अध्यापक बच्चों को सुधारने के लिए कभी उन्हे दंडित भी करता है। बच्चों की अनुशासन हीनता सीमा का अतिक्रमण कर चुकी है। विद्यार्थी कक्षा में बेशर्मी करे और अध्यापक मूक रहे- यही चाहते हैं सब ? क्या हो सकेगा राष्ट्र निर्माण ?
आज कक्षा में दस छात्र पढ़ना चाहते हैं और ३० नहीं। तब क्यों शिक्षा को आवश्यक बना कर उनपर लादा जा रहा है?
मैं बहुत बार ऐसे छात्रों को देखकर सोचती हूँ क्यों ना पढ़ने के लिए बाध्य किया जा रहा है? जबरदस्ती पढ़ाए जाने पर क्या वो शिक्षा का उचित लाभ उठा पाएँगें?
माता- पिता के पास समय नहीं है, अध्यापक को सुधार की आग्या नहीं है फिर कैसे होगा राष्ट्र निर्माण ? और सम्मान भी ना मिला तो कौन बनेगा अध्यापक ???
Saturday, 30 August 2008
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22 comments:
sikshako ke dukh-dard aaour samasya ko acchi tarah aapni lekhni se ujagar kiya hai. dhaniyabad
जोर-जबरदस्ती से शिक्षा का
दूर तक नाता नहीं है.
वाह तो कारा तोड़कर ख़ुद को
पा लेने की कला का नाम है.
इस कला के पारखी विद्यार्थी की
सम्भावना के विपरीत नहीं जा सकते.
लेकिन दुर्भाग्य की रेखाएँ गहरी होती जा रही हैं.
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आपकी सोच सार्थक...सकारात्मक है.
आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
मीडिया की तथाकथित जागरुकता ने गुरू-शिष्य ही नहीं पिता-पुत्री एवं भाई-बहन के पावन रिश्तों को भी उधेड़ा है. मामला बेशक चिंतनीय पर हर तस्वीर के दो पहलू होते हैं.
माता- पिता के पास समय नहीं है, अध्यापक को सुधार की आग्या नहीं है फिर कैसे होगा राष्ट्र निर्माण ? और सम्मान भी ना मिला तो कौन बनेगा अध्यापक ???
बहुत अहम् मुद्दा है ! सटीक लेखन के लिए आपका बहुत धन्यवाद !
patan ke gart ki taraf sab bhagte chale jaa rahe hain. jab baap hi bachche se kahta ki phone par kah do ki papa ghar par nahin hain to kaise sanskar padenge.
bahut badi sachchaai ....
kaash yah lekhni koi kamaal kar jaye
ishwar ki daya se ab tak to pyaar mila hai mujhe ,aage kaun jaane....lekhan satik hai,sach bhi
आलोचना की परवाह न करते हुए ऐसे परिवेश में शिक्षक का दायित्व और भी बढ़ जाता है। जायज चिन्ता।
शोभा जी आप ने सही लिखा हे हमारे जमाने मे गुरु यानि शिक्षक कॊ बहुत आदर से देखा जाता था, मुझे तो आज भी कोई पुराना गुरु मिलता हेतो मे पांव छू लेता हू, लेकिन आज की पीढी, गुरु को छोडो मां बाप कॊ नही पुछती, पूछती हे तो कुछ लेने के लिये.... किस ओर जा रहे हे हम ????
धन्यवाद लेख के लिये
मीडिया और कॉर्पोरेट जगत के केंद्र में युवा वर्ग है। उनकी खुशामद करने के लिए माता-पिता और शिक्षकों का मज़ाक उड़ाना ज़रूरी है। कई विज्ञापन यही दिखाते हैं कि शिक्षक और माँ-बाप चिल्लाते रहें पर युवा और किशोर अपने कानों पर इयरफ़ोन लगाए फ़िल्मी गानों की फ़िलॉस्फ़ी को आत्मसात् करते जाएं। ख़ैर, माता-पिता और शिक्षकों को अपना काम लगन और समर्पण के साथ करते रहना होगा। ये बच्चे बड़े भी होंगे और इनके भ्रम भी टूटेंगे।
bahot gehrai se likha hai aap ne...par shayad isi dhanche mein dhala hai apna samaaj... kahan se badlav shuru kare kisi ko samaj nahi aa raha...
उत्तम प्रस्तुति शोभा जी ,आपने दिल को छु लेने वाली बात कही .धन्यवाद !
आपकी जानकारी के लिए मेरे दोनों ब्लॉग वाणी और मंथन बंद हो गए हैं ,उनके स्थान पर मेरे ब्लॉग आरोही जिसका URL हैं http://aarohijivantarang.blogspot.com/
और वीणापाणी जिसका URL हैं http://vaniveenapani.blogspot.com/ मैंने शुरू कर दिए हैं .
सधन्यवाद !
बहुत बेबाक विवेचन है धन्यबाद
शोभा जी,
पांचों अंगुलियां एक सी नहीं होतीं। इसी तरह बहुत से गुरू भी अब ट्यूशनबाज हो गए हैं, जो ट्यूशन न पढ़ने वाले बच्चों को प्रताड़ित करते हैं।
सही कहा.
आपने सच्चाई बयां कर दी।
aapne sahi kaha hai| kuchh saalon tak maine bhi Graduate students ko padhaya hai..lekin tab yah lagta tha ki sirf mai unhe technical ya kitaabi sikhaa de rahin hoon...mansik siksha dene ka shayad mere paas adhikaar hi nahi tha..
ek ek bat sahi kahi hai apne...
ummed hai kuch badlav aye..
meri hosla afjai ke liye dhanyawaad
सही कहा आपने। जब तक हम अपने अध्यापक से मन से नहीं जुडेंगे, उन्हें सम्मान नहीं देंगे, हम कुछ नहीं सीख सकते।
शोभा जी,
आपके विचार सराहना योग्य हैं और मजबूर करते हैं सोचने के लिए की क्या होना चाहिए शिक्षकों का योगदान एक बालक का भविष्य बनाने में.
आपकी माँ वाली कविता बहुत ही अच्छी लगी, बधाइयाँ :)
और आपने हमारे ब्लॉग पे जिस नज़्म पे टिप्पडी की है वोह स्वर्गीय मीना कुमारी उर्फ़ नाज़ जी ने लिखी है. इसलिए सारी प्रशंसा उनके लिए, हम तो उनके एक प्रशंसक मात्र ही हैं :)
थोड़ा सा आसमान केवल एक नज़्म संग्रह है, इसलिए जिसने लिखा है उसकी प्रशंसा कीजिये यदि पसंद आए तो। मैं एक दूसरे ब्लॉग पे अपनी कृतियाँ लिखता हूँ :)
सबसे पहले तो मैं आपको मेरे ब्लॉग को पढने और सराहने के लिए धन्यवाद् देता हूँ, हालाँकि मैं आप लोगों की श्रेणी का लिखने वाला नहीं हूँ, मैं तो मात्र अपने आप के लिए लिखता हूँ. आपका ब्लॉग देखा और कविता "माँ तुम.." पढ़ कर तो मैं क्लीन बोल्ड हो गया. आप को कोटि कोटि प्रणाम. आज मेरा दिन अच्छा है जो आप से मुलाकात हुई. मुझे विश्वास है मुझे आपसे काफी प्रेरणा मिलेगी. निवेदन है कि अपना स्नेह यूँ ही बनाये रखें.
Aapka blog dekha..bada man bhaya..par sabse adhik pasand aayee, aapki maa pe likhi kavita...aaj maibhee khudko waheen paatee hun aur aisahee kehtee hun aur likhtee hun...laga jaise aapne mere manke alfaaz yahan keh diye hon!
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